मानव सभ्यता के विकास में कुम्हारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. कहा जाता है कि कला का जन्म कुम्हार के घर में ही हुआ है. इन्हें उच्च कोटि का शिल्पकार वर्ग माना गया है.
हिंदू कुम्हार सृष्टि के रचयिता वैदिक प्रजापति (भगवान ब्रह्मा) के नाम पर खुद को सम्मानपूर्वक प्रजापति कहते हैं.
एक बार भगवान ब्रह्मा ने अपने पुत्रों के बीच गन्ना वितरित किया. सभी पुत्रों ने अपने अपने हिस्से का गन्ना खा लिया, लेकिन काम में लीन होने के कारण कुम्हार गन्ना खाना भूल गया. बाद में जिस गन्ने को उसने मिट्टी के ढेर के पास रख दिया था, अंकुरित होकर पौधे के रूप में विकसित हो गया. कुछ दिन बाद ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से गन्ने मांगे तो कोई भी पुत्र गन्ना नहीं लौटा सका. लेकिन कुम्हार ने गन्ने का पूरा पौधा उन्हें भेंट कर दिया. इस बात से ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने कुम्हार के काम के प्रति निष्ठा देखकर उसे प्रजापति की उपाधि से पुरस्कृत किया. इस प्रकार कुम्हार समाज प्रजापति के नाम से जाने जाने लगे.
“कुम्हारों की उत्पत्ति की यह दंतकथा पंजाब, राजस्थान और गुजरात में ज्यादा प्रचलित है. मालवा क्षेत्र में भी कुम्हारों की उत्पत्ति के बारे में ऐसी ही कथा प्रचलित है. लेकिन यहां मान्यता है कि ब्रह्मा जी ने गन्ने की जगह पान के पत्तों को वितरित किया था.”
कुछ लोगों का मत है जिस तरह से ब्रह्मा जी ने पंचतत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी (पदार्थ) से सृष्टि का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार से कुम्हार भी इन्हीं तत्वों से बर्तन बनाता है. कुम्हारों के रचनात्मक कला को सम्मान देने के लिए उन्हें प्रजापति कहा गया.